देवरिया का ऐसा मंदिर जिसे श्रद्धालु बताते हैं 'अश्वत्थामा' की तपोभूमि
Read Moreमध्य प्रदेश के मुरैना जिले में ऐंती ग्राम के निकट शनि पर्वत पर स्थित शनिचरा मंदिर को शनि महाराज की तपोभूमि माना जाता है। शनि पर्वत का उल्लेख त्रेता युग से ही मिलता है।
इस मंदिर में मौजूद विग्रह शनि महाराज को तांत्रिक रूप में तपस्या लीन दर्शाता है। उन्होंने यज्ञोपवीत, हृदय में नीलमणि, रुद्राक्ष माला, एक हाथ में सुमिरनी तथा दूसरे हाथ में दंड धारण किए हुए हैं।
रामायण की एक कहानी के अनुसार, लंका में जब राक्षसों ने हनुमान की पूंछ में आग लगा दी और उन्होंने लंका दहन करने का प्रयास किया तो प्रथमत: वह सफल नहीं हो सके। हनुमान ने योग शक्ति से लंका दहन न होने का कारण जाना तो पता चला कि उनके प्रिय सखा शनि लंकाधिपति के पैरों के आसन बने हुए हैं। उन्हीं के प्रभाव से लंका में आग नहीं लग पा रही है।
हनुमान ने अपने बुद्धिचातुर्य से काम लेते हुए शनि को रावण के पैरों के नीचे से मुक्त कराया और तुरंत लंका छोड़ने को कहा। पिछले कई वर्षों से रावण के पैरों का आसन बने रहने से शनि इतने दुर्बल हो गए थे कि वह रावण की कैद से मुक्त होने के बाद कुछ ही दूरी चलने पर थक गए और लंका से बाहर निकलने में हनुमान से अपनी असमर्थता जाहिर की। शनि ने बताया कि वह जब तक लंका में रहेंगे तब तक इसका दहन होना असंभव है और वह इस समय इतने कमजोर हो चुके हैं कि तुरंत लंका को नहीं छोड़ सकते।
शनि ने हनुमान से कहा कि आप बहुत बलशाली हैं। अत: आप मुझे पूरी ताकत से भारत भूमि की ओर फेंको तो मैं कुछ ही पल में लंका से दूर हो जाऊंगा। तब आप लंका दहन कर सकते हैं। वीर हनुमान ने ऐसा ही किया और शनि को पूरे वेग से भारत भूमि की ओर फेंका। शनि मुरैना जिले के ऐंती ग्राम के पास स्थित एक पर्वत पर गिरे जिसे अब ‘शनि पर्वत’ कहा जाता है। शास्त्रों में वर्णित है कि शनि पर्वत पर ही शनि ने घोर तपस्या कर अपनी शक्तियों एवं बल को पुनः प्राप्त किया।
शनिवार को शनि महाराज का दिन माना जाता है। शनि मंदिर पर शनिश्चरी अमावस्या पर लाखों श्रद्धालु शनि की शरण में आते हैं। साथ ही, हर शनिवार को यहां पर हजारों श्रद्धालु आते हैं। इस दिन न्याय के देवता शनि की पूजा का विधान है। शनि को पूजा में काला तिल, सरसों के तेल वाला दीपक दान करना अति उत्तम माना जाता है। पूजा में उन्हें नीले रंग का फूल अर्पित किया जाता है। शनिवार को तेल और काले तिल अर्पित किए जाते हैं। इस दिन तेल का दान करना श्रेष्ठ माना जाता है। इसके लिए स्नान के बाद एक कटोरी तेल में अपना चेहरे देखकर इस तेल और कटोरी को किसी जरूरतमंद को दान में दे दिया जाता है। शनि महाराज को भोग लगाकर, आरती करने के बाद शनि चालीसा का पाठ किया जाता है।
यह भी कहा जाता है कि यहां स्थापित शनि की मूर्ति और उनके सामने हनुमान प्रतिमा की स्थापना चक्रवर्ती महाराज विक्रमादित्य ने की थी। बाद में, शनि की महिमा एवं चमत्कारों से प्रभावित होकर ग्वालियर के तत्कालीन महाराजा दौलतराव सिंधिया ने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। मंदिर में लगे एक शिलालेख के अनुसार 1808 ई. में उनके द्वारा यह जीर्णोद्धार कार्य कराया गया। शनि और हनुमान की ये प्रतिमाएं विश्व में इकलौती एवं दुर्लभ हैं। पुरातत्व विभाग ने भी इसकी पुष्टि की है।
मंदिर में एक छोटा पवित्र जल कुंड है, जिसे गुप्त गंगा धारा के नाम से जाना जाता है। इसकी विशेषता यह है कि यह कभी खाली नहीं होता। इसे हमेशा जल से भरा हुआ ही देखा गया है। ऐसा तब है, जब यह मंदिर एक बीहड़ क्षेत्र में बसा है। ऐसे में यह किसी चमत्कार से कम नहीं है।
यह मंदिर तांत्रिक गतिविधियों के अनुसार अत्यंत सिद्ध मंदिर है। शनि जयंती पर मंदिर में विशाल मेला लगता है। इस मेले में लाखों भक्त हिस्सा लेते हैं। मंदिर दर्शन के बाद मंदिर की परिक्रमा की भी यहां विशेष महिमा मानी गई है।
मंदिर में अत्यंत प्राचीन त्यागी आश्रम है। मंदिर के निकट लेटे हनुमान अथवा पौड़े हनुमान का मंदिर भी यहां मौजूद है। वैसे तो यह मंदिर मुरैना जिले में आता है, लेकिन ग्वालियर के पास होने से भक्त इसे ग्वालियर के शनि मंदिर के नाम से भी जानते हैं।
यहां सुबह पांच से लेकर रात्रि आठ बजे तक दर्शन किए जा सकते हैं।
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