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आखिर क्यों पड़ा श्रीकृष्ण का नाम रणछोड़

भगवान श्रीकृष्ण कभी एक ‘गुरु’ की भूमिका में नजर आते हैं, कभी ‘सखा’, कभी एक भाई और कभी युद्ध में मैदान रण छोड़ने वाला ‘रणछोड़’ के रूप में। भगवान के इसी रूप को समर्पित गुजरात के खेड़ा जिले स्थित डाकोर धाम में एक कृष्ण मंदिर है जिसे ‘रणछोड़दास का मंदिर’ कहा जाता है।

माना जाता है कि वर्ष 1722 ई. में इस मंदिर की मौजूदा इमारत का निर्माण कराया गया था। मौजूदा समय में इस स्थान की गिनती हिंदुओं के पवित्र तीर्थ स्थानों में की जाती है। भक्तों के लिए रणछोड़ मंदिर का महत्व ठीक वैसा ही है, जैसा द्वारिका स्थित द्वारिकाधीश मंदिर का। दोनों ही मंदिरों में कृष्ण भगवान की मूर्तियां श्याम रंग के पत्थर से बनाई गई हैं। एक मीटर लंबी और 75 सेमी चौड़ी, काले रंग की इस सुंदर मूर्ति में भगवान रणछोड़ के ऊपरी हाथ में एक सुंदर चक्र और निचले हाथ में एक शंख है। हीरे-मोती से भगवान की आंखें बनी हुई हैं। मूर्ति को सोने की 11 मालाएं और कीमती पीले वस्त्र पहनाए गए है। सिर पर सोने का मुकुट सजा है। श्याम रूप में श्यामसुंदर का यह रूप बेहद मनोहारी लगता है।

गोमती नदी के किनारे स्थित इस मंदिर का निर्माण सफेद संगमरमर से किया गया है। ऊपरी शिखर में स्वर्ण का आवरण चढ़ाया गया है। मंदिर की चौखटों पर चांदी के पत्र मढ़े हुए हैं। एक तरफ ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए सीढ़ियां है। सात मंजिल के इस मंदिर की पहली मंजिल पर अम्बादेवी की मूर्ति स्थापित है। मन्दिर दोहरी दीवारों से बना है। दोनों दीवारों के बीच एक पतला सा रास्ता या गलियारा छोड़ा गया है। इसी रास्ते से भक्तजनों द्वारा परिक्रमा की जाती है। कुल मिलाकर यह मन्दिर एक सौ चालीस फुट ऊंचा है।

गोमती नदी के दक्षिण में पांच कुएं बने हुए हैं। निष्पाप कुंड में नहाने के बाद यहां आने वाले श्रद्धालु इन पांच कुओं के पानी से मुंह साफ करते हैं और इसके बाद रणछोड़ मंदिर में प्रवेश करते हैं। प्रत्येक वर्ष पूर्णिमा के अवसर पर लाखों की तादाद में श्रद्धालु यहां दर्शन के लिए आते हैं। भक्तगण भगवान की परिक्रमा करते है और उन पर फूल और तुलसी दल अर्पित करते हैं। मुख्य उत्सव कार्तिक, चैत्र, फागुन और आश्विन की पूर्णिमा के अवसर पर आयोजित किए जाते हैं। इस दौरान मंदिर में एक लाख से भी अधिक श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं।

यह मंदिर भगवान श्री कृष्ण के जीवन की एक घटना से जुड़ा हुआ है। भगवान श्री कृष्ण और जरासंघ के मध्य हुए युद्ध में अनुचरों के प्राणों की रक्षा के लिए भगवान कृष्ण युद्ध छोड़कर भाग गए थे और यहां डाकोर में आकर शरण ली थी। इस जनश्रुति के कारण यहां स्थित मंदिर का नाम रणछोड़ मंदिर पड़ गया।

इससे पहले, महाभारत के ही समय, डाकोर के आसपास का क्षेत्र हिडिंबा वन के रूप में जाना जाता था। घना जंगल होने के चलते इस स्थान ने संतों और ऋषि-मुनियों को तपस्या के लिए आकर्षित किया। एक कहानी के अनुसार, ऋषि कंडु के गुरुभाई डंक ऋषि का आश्रम भी इसी क्षेत्र में था। उन्होंने भगवान शंकर की तपस्या की और शिव उनसे प्रसन्न हुए तथा उन्हें वरदान मांगने के लिए कहा।

ऋषि ने भगवान शंकर के रूप में यहां एक बाण स्थापित किया, जिसे आज ‘डंकनाथ महादेव’ के नाम से जाना जाता है। इस नाम से डाकोर  को ‘डंकपुर’ के रूप में जाना जाता था और आसपास के क्षेत्र को ‘खखरिया’ के नाम से भी जाना जाता था क्योंकि यह खाकरा के पेड़ों से आच्छादित था।

एक अन्य कहानी के अनुसार, महाभारत के युद्ध के बाद जब भगवान कृष्ण और भीम व अर्जुन के पोते अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित के यज्ञोपवीत समारोह में शामिल होने जा रहे थे। उस समय, भीम को प्यास लगी और भगवान कृष्ण ने उन्हें डंक ऋषि के आश्रम के पास पानी का एक कुंड दिखाया। दोनों अपनी प्यास बुझाने के बाद एक पेड़ की छाया में आराम कर रहे थे।

भीम इस विचार के साथ आए कि यदि इस कुंड को बड़ा कर दिया जाए, तो यह कई जंगली जानवरों, पक्षियों और मनुष्यों की प्यास को बुझा सकता है। इसलिए, अपनी गदा के वार से उन्होंने इस कुंड को 572 एकड़ जमीन में फैली एक बड़ी झील में बदल दिया। इस झील को आज ‘गोमती झील’ के नाम से जाना जाता है। यह खेड़ा जिले की सबसे बड़ी झीलों में से एक है। इसके तीन तरफ पत्थर के कदम और खदानें हैं। गोमती झील के पानी में प्राणियों की अस्थियां तक घुल जाती हैं।

मौजूदा मंदिर के निर्माण और मूर्ति स्थापना के पीछे भी एक रोचक कथा सुनाई जाती है। कथा के अनुसार बाजे सिंह बोडाणा नामक राजपूत अपने पत्नी गंगाबाई के साथ डाकोर में निवास करता था। वह भगवान रणछोड़ का परम भक्त था और अपनी आस्था प्रदर्शित करने के लिए वर्ष में दो बार पत्नी के साथ दाहिने हाथ में तुलसी का पौधा लिए द्वारिका जाकर अर्पित किया करता था। यह क्रम 72 वर्ष तक चलता रहा। किंतु, जब वह वृद्ध हो गया और शारीरिक रूप से अक्षम हो गया  तो एक रात स्वप्न में भगवान ने उसे दर्शन दिए और कहा, “अब तुम्हें द्वारिका जाने की आवश्यकता नहीं है। मैं स्वयं तुम्हारे पास आ रहा हूं। जाओ, और द्वारिका मंदिर की प्रतिमा को डाकोर लेकर आ जाओ।“

भगवान का आदेश पाकर वह आधी रात में ही बैलगाड़ी द्वारा द्वारिका पहुंचा और गर्भगृह से भगवान रणछोड़ की प्रतिमा को चुराकर डाकोर ले आया। वह कार्तिक पूर्णिमा का दिन था। डाकोर लाने के बाद बाजे सिंह ने वह प्रतिमा गोमती नदी में छुपा दी। अगली सुबह जब द्वारिका मंदिर के पट खुले तो पुजारियों को भगवान रणछोड़ की प्रतिमा के गायब हो जाने का पता चला। ख़ोजबीन के बाद ज्ञात हुआ कि डाकोर के राजपूत बाजे सिंह द्वारा वह प्रतिमा चुराकर गोमती नदी में छुपा दी गई है। वे सभी प्रतिमा लाने डाकोर पहुंचे और भाले से टटोलकर नदी में मूर्ति तलाशने लगे। इस दौरान भाले की नोक प्रतिमा में चुभ गई। उससे प्रतिमा में जो निशान बना, वह वर्तमान में भी भगवान रणछोड़ की प्रतिमा में मौजूद है।

द्वारिका के पुजारियों ने भगवान की प्रतिमा ढूंढ तो ली, किंतु वापस द्वारिका नहीं ले जा पाए। स्वप्न में भगवान ने उन्हें दर्शन देकर कहा, “वापस चले जाओ और आज से छह माह उपरांत द्वारिका की वर्धनी बावली से मेरी मूर्ति निकलेगी। उस मूर्ति को द्वारिका मंदिर में स्थापित करना।” पुजारियों ने बाजे सिंह से भगवान रणछोड़ की प्रतिमा के वजन के बराबर स्वर्ण लिया और वापस द्वारिका चले गए। द्वारिका की वर्धनी बावली से निकली भगवान की प्रतिमा उन्होंने द्वारिका में स्थापित की, जो आज भी मौजूद है।

वर्तमान मंदिर का निर्माण 1772 में पुणे के पेशवा गोपाल जगन्नाथ अम्बेकर द्वारा करवाया गया था। इसके चलते, इसकी वास्तुकला में महाराष्ट्रियन शैली का प्रभाव देखा जा सकता है। संगमरमर के पत्थरों से निर्मित मंदिर आठ शिखरों से मिलकर बना है। केन्द्रीय शिखर 27 मीटर ऊंचा है, जिस पर सोने का आवरण चढ़ा है और रेशम का श्वेत ध्वज सुसज्जित है। मंदिर की दीवारों पर भगवान श्रीकृष्ण के जीवन के विभिन्न पक्षों को दर्शाते हुए चित्र लगे हुए हैं।

गर्भगृह में भगवान श्रीकृष्ण की पश्चिममुखी प्रतिमा स्थापित है। काले पारस पत्थर से निर्मित यह प्रतिमा खड़ी मुद्रा में है, जिसके निचले हाथ में शंख और ऊपरी हाथ में चक्र है। सोने और चांदी के गहनों तथा रंग-बिरंगे वस्त्रों से सजी यह भव्य प्रतिमा बड़ोदा के गायकवाड़ द्वारा उपहारस्वरूप प्रदान किए गए लकड़ी के सिंहासन पर विराजमान है। भक्त बाजे सिंह का मंदिर भी इसी मंदिर के परिसर में बनाया गया है, जहां भगवान अपने भक्त के साथ विराजमान है।

डाकोर को तीर्थ धाम के रूप में विकसित करने के लिए गुजरात सरकार द्वारा गठित यात्रा धाम विकास बोर्ड ने इसे गुजरात के छह प्रमुख तीर्थों में स्थान दिया है। यहां प्रतिवर्ष 70-80 लाख तीर्थयात्री दर्शन के लिए आते हैं। पूर्णिमा को यहां भक्तों का बड़ा जमावड़ा लगता है। नवरात्रि के समय की शरद पूर्णिमा में डाकोर को ‘बोडना’ के नाम से जाना जाता है। इस दिन भक्तगण विशेष रूप से इस मान्यता के साथ दर्शन के लिए आते हैं कि इस पुण्य दिवस को भगवान रणछोड़ के दर्शन मात्र से ही हर मनोकामना की पूर्ति हो जाएगी।

यह मंदिर सुबह को 6 बजे से दोपहर 12 बजे तक खुलता है और शाम 4 से 7 बजे तक इसके द्वार खुले रहते हैं। प्रतिदिन सुबह 6:45 बजे यहां मंगल आरती का आयोजन होता है। इस मंगल आरती को मंगलभोग, बालभोग, श्रीनगरभोग, ग्वालभोग और राजभोग द्वारा संपन्न किया जाता है, जबकि दोपहर में यह उस्थापनभोग, शयनभोग और शक्तिभोग द्वारा सम्पन्न किया जाता है।

पूर्णिमा के दिनों में दर्शन का समय अलग होता है और मंदिर के अधिकारियों द्वारा इसकी घोषणा पहले ही कर दी जाती है। निर्धारित भोगों को छोड़कर देवता को अतिरिक्त भोग लगाने के इच्छुक वैष्णवों की सुविधा के लिए, डाकोर मंदिर योजना में एक प्रावधान है और तदनुसार, भगवन को महाभोग, राजभोग और अतिरिक्त भोग अर्पित किए जाते है।

डाकोर के रणछोर मंदिर के अलावा यहां स्वामी नारायण और श्री वल्लभ सहित वैष्णव संप्रदायों के कई मंदिर स्थित हैं, लेकिन पवित्र डाकोर धाम की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यहां सभी संप्रदाय व जाति आदि के लोग बिना किसी भेदभाव के समान रूप से पूजा-अर्चना करने आते हैं।

अहमदाबाद एयरपोर्ट से डाकोर 90 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां से बस या टैक्सी द्वारा डाकोर पहुंचा जा सकता है। रेल मार्ग से जाने के लिए आनंद रेलवे स्टेशन पहुंचना होगा, जहां से डाकोर महज 33 किलोमीटर दूर है। यह दूरी बस या टैक्सी द्वारा पूरी की जा सकी है। इसके अलावा, अहमदाबाद और वड़ोदरा सहित कई शहरों से डाकोर के लिए सीधी बस सेवा भी उपलब्ध है।

नारद संवाद


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